अदल बदल भाग - 14
अदल-बदल
मास्टर हरप्रसाद ने वह रात बड़े कष्ट और उद्वेग से काटी। रुग्णा बालिका को छोड़कर वे रात में कहीं जा भी नहीं सकते थे। और मायादेवी का इस प्रकार चला जाना उनके लिए एक असंभावित घटना थी। इसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी। वे एक उदार विचारों के तथा शान्त प्रकृति के सज्जन सद्गृहस्थ थे, इसीसे उन्होंने अपनी पत्नी को इतनी स्वतन्त्रता भी दे रखी थी। उसका परिणाम ऐसा घातक होगा-जिससे उनकी गृहस्थी ही में आग लग जाएगी, यह उन्होंने नहीं सोचा था। इधर कुछ दिन से मायादेवी के व्यवहार, आचरण उनके लिए असह्य होते जा रहे थे-परन्तु वे यह सोच भी न सके थे कि एकमात्र अपने पति और पुत्री को इस भांति निर्मम होकर छोड़कर चली जाएगी।
प्रातःकाल होने पर जल्दी-जल्दी वे अपने नित्य-कर्म से निवृत्त होकर प्रभा को कुछ पथ्थ-पानी दे और तसल्ली दे मालती देवी के मकान पर पहुंचे। मालती से मुलाकात होने पर उन्होंने कहा—'सम्भवतः मेरी पत्नी मायादेवी आपके यहां आ गई है। 'कृपया जरा उसे बुला दीजिए, मैं उसे घर ले जाने के लिए आया हूं।'
मालतीदेवी ने जवाब दिया-श्रीमती मायादेवी आपसे मुलाकात करना नहीं चाहतीं, पत्नी की हैसियत से आपके साथ रहना नहीं चाहती, आपने उनपर अत्याचार किया है। अतः आजाद महिला-संघ के नियम के अनुसार हमने उन्हें आश्रय दिया है, और मुझे आपसे यह कहना है कि आप उनकी मर्जी के विरुद्ध न मिल सकते हैं, न उन्हें जबरदस्ती साथ ले जा सकते हैं ।'
'परन्तु वह मेरी है, मुझे उससे मिलने तथा अपने साथ उसे घर ले जाने का अधिकार है।'
'तो आप इसके लिए कानूनी चारागोई कर सकते हैं।'
'परन्तु इसकी आवश्यकता क्या है, यह पति-पत्नी के बीच की बात है।'
'सैकड़ों वर्षों के उत्पीड़न के बाद अब इस बात की आवश्य- कता आ ही पड़ी है कि पति-पत्नी के बीच भी कानून हस्तक्षेप करे, जिससे पति के अत्याचारों से पत्नी की रक्षा हो।'
'परन्तु कहीं अत्याचार की बात, भी हो, इस प्रकार की चेष्टा तो स्त्रियों ही का अत्याचार है।'
'तब तो अवश्य कानून आपका सहायक होगा, अब आप जा सकते हैं।'
'कृपा कर मेरी पत्नी को बुला दीजिए--झंझट मत खड़ा कीजिए।'
'आप स्वयं ही संघ के ऑफिस में झंझट खड़ा कर रहे हैं। कृपया आप चले जाइए।'
'मैं अपनी पत्नी को यहां से ले जाने के लिए आया हूं।'
'वह आपके साथ नहीं जाना चाहतीं।'
'मैं उसे समझा लूंगा, आप उसे बुलाइए।'
'वह आपसे बात भी करना नहीं चाहतीं।'
'आप गजब करती हैं मालतीदेवी, एक पति और पुत्री से उसकी पत्नी और माता को जुदा करती हैं! आपको तो मेरी सहायता करनी चाहिए।'
'शायद कानून आपकी सहायता करे।'
'आप व्यर्थ ही बारम्बार कानून का नाम क्यों घसीटती हैं? पति-पत्नी के बीच आत्मा का सम्बन्ध है, कानून की इसमें क्या आवश्यकता?'
'मै आपसे इस समय, इस विषय पर विवाद नहीं कर सकती।'
'मैं भी विवाद करना नहीं चाहता। आप मेरी पत्नी को बुला दीजिए।'
'वह नहीं आएंगी?'
'क्यों नहीं आएंगी?'
'यह उनकी इच्छा है।'
'यह तो आपका अन्याय है मालतीदेवी, आप नहीं जानतीं, उसकी पुत्री बीमार है, वह मां को पुकार रही है।'
'तो इसमें मैं क्या करूं?'
'आप दया कीजिए मालतीदेवी!'
'क्या जबरदस्ती?'
'जबरदस्ती नहीं, श्रीमतीजी, मै आपसे प्रार्थना कर रहा हूं।'
'आप नाहक हमारा सिर खाते हैं।'
'लेकिन उसने उचित नहीं किया है, उसे सोचना होगा और आपको भी उसे समझाना चाहिए। सोचिए तो सही, वह एक पति की पत्नी ही नहीं, एक बच्ची की मां भी है।'
'वह अपना हानि-लाभ सोच सकती है, उसे आपकी शिक्षा की आवश्यकता नहीं।'
'है, श्रीमतीजी, है। उसे मेरी शिक्षा की, सहायता की बहुत जरूरत है। वह अपना हानि-लाभ नहीं सोच सकती।'
तो आप चाहते क्या हैं?'
'ज़रा उसे यहां बुलाइए, मैं उससे बात करना चाहता हूं।'
'परन्तु मैंने कहा, वह आपसे बात करना नहीं चाहती।'
'नहीं, नहीं, बात करने में हानि नहीं है।'
'ओफ, आपने तो सिर खा डाला! मैं कहती हूं, आप चले जाइए।'
'मैं उसे ले जाने के लिए आया हूं।'
'आप उसे जबरदस्ती नहीं ले जा सकते।'
'मै उसे समझाना चाहता हूं।'
'वह आपसे मिलने को तैयार नहीं।'
'मै उसका पति हूं श्रीमतीजी, वह मेरी पत्नी है, मेरा उसपर पूरा अधिकार है।'
'तो आप अदालत में जाइए, अपने अधिकार का दावा कीजिए।'
'छी, छी! श्रीमतीजी, आप महिलाओं की हितैषिणी हैं, आप कभी यह पसन्द नहीं करेंगी।'
जी, मैं तो यह भी पसन्द नहीं करती कि पुरुष स्त्रियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध अपनी आवश्यकताओं का गुलाम बनाएं।'
'कहां, हम तो उन्हें अपने घर-बार की मालकिन बनाकर, अपनी प्रतिष्ठा, सब कुछ सौंपकर निश्चिन्त रहते हैं। जो कमाते हैं, उन्हीं के हाथ पर धरते हैं, फिर प्रत्येक वस्तु और कार्य के लिए उन्हीं की सहायता के भिखारी रहते हैं।'
'विचित्र प्रकृति के व्यक्ति हैं आप, अब मुझीसे उलझ रहे हैं। आप यह व्याख्यान किसी पत्र में छपवा दीजिएगा। आपकी युक्तियों का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है।'
'किन्तु श्रीमतीजी, आप एक पति और उसकी पत्नी के बीच इस प्रकार का व्यवधान मत बनिए।'
'अच्छा तो आप मुझे धमकाना चाहते हैं?'
'मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, विनय करता हूं। आप भद्र महिला हैं। एक माता को उसकी रुग्णा पुत्री से, उसके निरीह पति से पृथक् मत कीजिए। आप बड़े घर की महिलाएं, और आप के पतिगण, यह सब विच्छेद सहन करने की शक्ति रखते हैं, हम बेचारे गरीब अध्यापक नहीं। हमारी छोटी-सी गरीब दुनिया है, शान्त छोटा-सा घर है, एक छोटे-से घोंसले के समान। हम लोग न ऊधो के लेने में और न माधो के देने में। दिनभर मेहनत करते है--घर में पत्नी और बाहर पति, और रात को अपनी नींद सोते हैं। आप बड़े-बड़े आदमियों का शिकारी जीवन है, उसमें संघर्ष है, आकांक्षाएं हैं, प्रतिक्रिया है और प्रतिस्पर्धा है। इन सबके बीच आप लोंगों का व्यक्तिगत जीवन एक गौण वस्तु बन जाता है। पर हम लोग इन सब झंझटों से पाक-साफ हैं। कृपया हम जैसे निरीह प्राणियों को अपनी इस जीवन की घुड़दौड़ में न घसीटिएगा। दया कीजिए। मेरी पत्नी मेरे साथ कर दीजिए, मैं उसे समझा लूंगा, उससे निपट लूंगा।'
'अच्छा तो आप चाहते हैं कि मैं चपरासी को बुलाऊं? या पुलिस को फोन करूं?
'जी नहीं, मैं चाहता हूं कि आप मायादेवी को यहां बुला दें। मैं उन्हें अपने घर ले जाऊं।'
'यह नहीं हो सकता।'
'यह बड़ा अन्याय है, श्रीमतीजी!
'आप जाते हैं, या चपरासी बुलाया जाए?...'
'चपरासी....'ओ चपरासी!'
देवीजी ने उच्च स्वर से पुकारा। अपनी टेढ़ी और घिनौनी मूंछों में हंसता हुआ हरिया आ खड़ा हुआ। अर्ध उद्दण्डता से बोला---
'क्या करना होगा मेम साहेब?'
मेम साहब के कुछ कहने से प्रथम ही मास्टर साहब---'कुछ, नहीं, भाई, कुछ नहीं' कहते हुए अपना छाता उठा ऑफिस से बाहर हो गए। चलती बार वे श्रीमती को नमस्ते कहना भूले नहीं। उनके हृदय में द्वन्द्व मचा हुआ था।
जारी है